जिसका परिहास पप्पू, राजकुमार व ना समझ कह कर के उड़ाते थे आज वह “डरो मत” की टैगलाइन के साथ देश के एक कोने से दूसरे कोने जा रहा है । हर भारतीय का यह कहकर साहस बांध रहा है की “डरो मत” मैं हूं आपका हाथ पकड़ लूंगा मजबूती से। इतिहास में, जिसे आज बदलने का प्रयास हो रहा है, सब ने पढ़ा है पप्पू के पूर्वजों की कुर्बानियां, उनकी जेल यात्राओं व यातनाओं को। यह भी पढ़ा है कि किस तरह से पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शून्य जीडीपी वाले राष्ट्र को तत्कालीन दो बड़ी महाशक्तियों अमेरिका और युएसएसआर के सामने एक गुटनिरपेक्ष अभियान में 122 देश का मंच तैयार कर दिया था। कैसे नेहरू ने मात्र 3.5 करोड़ बजट वाले देश में गगनयान बनाने वाली संस्था इसरो, परमाणु ऊर्जा का सही प्रयोग करने के लिए भावा एटोमिक सैंटर ,भारतीयों को देश में ही उच्च स्तरीय शिक्षा के लिए आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे संस्थान बनाने का बीड़ा उठाया और विश्व में भारत को अग्रणी पंक्ति में खड़े होने की मजबूती दी।
इतिहास के पन्नें इस बात की गवाही दे रहे हैं कि इस पप्पू ने जो आज देश के कोने-कोने में प्यार बांट रहा है, अपने बाल्य काल (10 वर्ष की उम्र में) अपनी दादी इंदिरा गांधी को अपने सीने पर 50 गोलियां लेते देखा है। बच्चा था सहम गया लेकिन समझ को खत्म नहीं होने दिया। अपने से प्रश्न करता रहा , उत्तर ढूंढता रहा और अपने अंदर के डर को बाहर फेंकता रहा ।अभी पूरी तरह से संभला भी ना था कि पिता राजीव गांधी का शव घर के आंगन में आ गया। वह समझ गया कि उसका परिवार, जिसे आज की चतुर चालाक सियासी पीढ़ी वंशवाद व परिवारवाद जैसे शब्दों का प्रयोग कर उनके बलिदान को गौण करने का प्रयास करती आ रही है, देश व देशवासियों के मान-सम्मान, स्वाभिमान व स्वतंत्रता के लिए कुर्बानियां देने के लिए बना है।
उसकी मां इस घटना के बाद टूट गईं। वह अन्य मांओं की तरह उन्हें जिंदा रखने के लिए अपने आंचल में छुपा लेना चाहती थी। लेकिन जिसे पप्पू कहा जाता रहा इस बात को भली भांति समझ रहा था कि इस परिवार में पैदा होने की बहुत बड़ी जिम्मेदारियां व परंपराएं हैं। इन्हीं जिम्मेदारियां व परंपराओं को आगे बढ़ते हुए राहुल ने घर के आंगन व सुरक्षा घेरे के बाहर कदम रखे और मां सोनिया गांधी ने बिखरती हुई कांग्रेस को दिशा दी और 2004 में केंद्र में यूपीए सरकार का गठन किया।
राहुल गांधी चाहते तो प्रधानमंत्री बन सकते थे परंतु उनकी सोच अद्यतन सियासी जमात से अलग थी। वर्तमान राजनीतिक सोच की प्राथमिकता सत्ता हासिल करना है, उसके लिए देश, समाज, भाई-भाई ,हिंदू मुस्लिम, सिख ,इसाई यहां तक दो संस्कृतियों में मतभेद कर सत्ता हासिल करना है। जबकि राहुल गांधी को 2010 में एक बार फिर सत्ता और सेवा के चयन में से सेवा को ही चुना।
सत्ता लोभियों ने राहुल गांधी के इस चयन को देश के सामने कमजोरी के रूप में परोसा और राहुल गांधी को पप्पू का नाम दिया। पप्पू नाम बुरा नहीं है, देश के करोड़ों मां-बाप अपने पुत्रों को प्यार से पप्पू कहा कर पुकारते हैं। राहुल गांधी ने भी इस नाम को अपमान की दृष्टि से नहीं देखा बस सियासत के गिरते मूल्यों पर अफसोस की नजर डाली और आगे बढ़ गए
2014 में कांग्रेस ने चुनाव राहुल के नेतृत्व में लड़ा कांग्रेस चुनाव हारी और हारती चली गई, जहां नहीं भी हारी वहां भी हार दी गई खरीद फरोख्त के जरिए से। राहुल हर हार से सीखते गए और मजबूती से आगे बढ़ते गए । प्रजातांत्रिक ढंग से जीती सरकारों को तोड़ने के सिलसिले को तोड़ने के लिए निकल पड़े देश जोड़ो यात्रा पर। लोगों से मिले उनको समझाया कि देश में क्या चल रहा है और कहा “डरो मत” मैं हूं। लोग और देश राहुल से जुड़ने लगा।
इस यात्रा के परिणाम मिलना शुरू हुए। हिमाचल प्रदेश विगत एक दशक में पहला ऐसा राज्य बना जहां कांग्रेस जीती लेकिन विधायकों को किसी बस में कैद करके कहीं रिसोर्ट में नहीं रखा गया। विधायक खुले तौर पर माल रोड और प्रदेश में घूमते रहे और प्रजातांत्रिक मूल्यों पर अडिग रहे । राहुल गांधी की “डरो मत” राजनीति की पहली जीत थी। कांग्रेस ने प्रदेश में एक बेखौफ सरकार का गठन हुआ।
“डरो मत” की टैगलाइन ने कर्नाटक में भी असर दिखाया वहां भी चुने विधायकों को पहले की तरह रिसोर्ट में नहीं रखा और मजबूत सरकार का गठन किया सत्ताजीवियों को समझ में आने लगा कि राहुल गांधी सियासी सैलानी नहीं है अपितु सियासत की नई सोच है जिसका मूल मंत्र है “डरो मत”। लोगों ने तो डरना छोड़ दिया लेकिन सत्तावीर डरो मत की टैगलाइन से डरने लगे हैं।

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