जनता के सहयोग और कड़े निर्णयों में मुक्ति मार्ग जोह रही सुक्खू सरकार 

उत्तरोतर सरकारों के वित्तीय व प्रशासकीय कुप्रबंधन और सरकार को जैसे-तैसे चलाने की मानसिकता के कारण सुक्खू की सरकार को 74 हजार करोड़ रुपए का  पहाड़ जितना कर्ज विरासत में मिला है। इसके अतिरिक्त सरकारी कर्मचारियों को एरियर अदा करने की 11000 करोड़ रुपए की  देनदारी भी है । कुल मिलाकर देय राशि 85000 करोड़ रुपए की है अथार्थ छोटे से पहाड़ी राज्य में हर पैदा होने वाले बच्चे से लेकर जीवन के अन्तिम पड़ाव पर बैठ हर वरिष्ठ नागरिक के ऊपर एक लाख से ज्यादा का कर्ज है। ग्राम परिवेश की टीम ने प्रदेश सरकार के निरंतर बढ़ते ऋण को लेकर एक अध्ययन करने का प्रयास किया है। दुख की बात है कि हमारे इस प्रयास में जिन लोगों को जानकारी उपलब्ध करवाने में सहयोग करना चाहिए था वह छक्कापंजा ज्यादा करते रहे और तथ्यों को छुपाते रहे।

 ऋण लेने की पृष्ठभूमि

कोई भी राज्य सरकार , प्रदेश की उत्पादक क्षमता बढ़ाने व ढांचागत विकास के लिए ऋण लेती है और उससे अपनी आर्थिकी को सुदृढ़ करके केंद्र सरकार से अतिरिक्त धन लेती है या लेने का प्रयास करती है। हिमाचल प्रदेश डॉ. यशवंत सिंह परमार के शासन काल में अधिशेष बजट देता रहा है। जब शांता कुमार ने हिमाचल की कमान संभाली तो उन्होंने इस बात की चर्चा की थी कि डॉ. परमार के समय का बजट हमेशा बचत का बजट रहा। डॉ. परमार के बाद भी 1989-90 तक प्रदेश की वित्तीय स्थिति ठीक रही।  अगर कोई बजट 10-20 करोड़ रुपए घाटे के आए भी तो सरकार का उतना पैसा रिजर्व बैंक होता था।  लेकिन 1991-92 से प्रदेश की वित्तीय स्थिति निरंतर बिगड़ती चली गई। बजटीय घाटा घातीय ढंग से बढ़ता चला जा रहा है। हमने यह जानने का प्रयास  किया कि 1991-92 में ऐसा क्या घटा कि प्रदेश की वित्तीय सेहत खराब हो गई। 1991-92 में शांता कुमार की सरकार ने 200 करोड़ रुपए के अतिरिक्त  प्रबंधन के लिए केंद्रीय सरकार के वित्त विभाग के कुछ अधिकारियों के आश्वासन पर  बजट में डाल दिया परंतु बाद में यह 200 करोड़ रुपया केंद्र सरकार से नहीं मिला  और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के कारण 1993 में शांता कुमार की सरकार गिर गई।   प्रदेश में कुछ समय राष्ट्रपति शासन के बाद विधान सभा के चुनाव हुए। इस चुनाव  में शांता कुमार ने ” सरकारी खजाना खाली” को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया जिसका प्रतिउत्तर वीरभद्र सिंह ने देते हुए कहा सरकारी खजाना खाली नहीं परंतु भाजपा का” ऊपर का मालाह खाली है”। 1993 में वीरभद्र की सरकार आई और वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिए लगभग 200 करोड़ का ऋण बिजली बोर्ड के माध्यम से उठाया। सरकार इस ऋण से अभी मुक्त हुई नहीं थी कि 1994 में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदेश में सभी दिहाड़ीदार मजदूरों, जो हिमाचल प्रदेश सरकार ने विभिन्न केंद्रीय योजनाओं के अंतर्गत लगाए थे, को नियमित करने का आदेश दिया। इन दिहाड़ीदार मजदूरों की संख्या 30 से 35 हजार थी। इन सभी को नियमित करने के लिए प्रदेश को अतिरिक्त धन की जरूरत पड़ी तो सरकार ने कर्ज लेने की ओर रूख किया। इसके अलावा प्रशासकीय सुस्ती और सभी सरकारों द्वारा “कम कर व्यव्स्था” की नीति ने प्रदेश की आर्थिकी को बद से बदतर स्थिति में पहुंचा दिया है।

 जयराम सरकार में कर्जा घातीय ढंग बढ़ा

दोहरे इंजन वाली जयराम सरकार मजे से बाजार से ऋण उठाती रही। जयराम सरकार ने आते ही 500 करोड़ के ऋण लेने की शुरूआत की और हर बार  यह राशी बढ़ती चली गई और  जाते-जाते भी  1500 करोड़ का ऋण लिया। विगत पांच वर्षों में जयराम सरकार में कर्जा लेने की गति पूर्व की सरकारों की तुलना में 58 प्रतिशत बढ़ी है।  प्रदेश के कुल सकल उत्पाद का लगभग 41 प्रतिशत कर्ज उठा रखा है जो कि अपने आप में आज तक का एक रिकॉर्ड है। प्रदेश सरकार अपने कर्ज को चुकाने के लिए हर साल लगभग 5342 करोड़ रुपए दे रही है। 2017 में जब जयराम ने प्रदेश सरकार की कमान संभाली तो प्रदेश सरकार पर 47000 करोड़ का कर्जा था जो पांच सालों बढ़कर लगभग 75000 करोड़ हो गया है। हैरानी की बात है कि एक ओर प्रदेश सरकार उत्पादन क्षमता व ढांचागत विकास करने के लिए धड़ाधड़ ऋण ले रही है तो दूसरी ओर केंद्र सरकार द्वारा चलाई गई  आवास, सिंचाई, पेयजल, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, परिवहन व अन्य योजनओं का पैसा खर्च न करने पर असमर्थ रही और पैसा लैप्स करती रही। कुछ योजनाओं में जयराम सरकार ने 25 से 50 प्रतिशत पैसा लैप्स किया है।

 चुनौती  असम्भव है असाध्य नहीं, उठाने होंगे ठोस कदम !

कर्जे के पहाड़ को पार कर बेरोजगारों की सुनामी को साधना, विकास की तान को सुरमई करना, लोकप्रियता की लय का समा बांधना और केंद्र सरकार की बेरुखी का रुख सही करना मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के लिए असंभव है लेकिन असाध्य नहीं पूर्व की सरकारों ने, यनि 1989- 90 से 2022 तक ,जो गलतियां की हैं उनको समझकर उनसे सीख ले कर, पहाड़, सुनामी, लय और तान को कसा जा सकता है अगर वित्तीय अनुशासन प्रशासकीय कौशल और अनुराग और द्वेष की राजनीति पर लगाम लगाकर काम किया जाए तो। पूर्व की सरकारें,  विशेषकर जयराम की सरकार ऋण बढ़ाती चली गई और राजस्व कम करती रहीं सरकारें अगर अपने राजस्व को नहीं बढ़ाएंगी तो कैसे रोजगार बढ़ेंगे और कैसे विकास होगा?  पूर्व में कुछ सरकारों ने राजस्व व रोजगार बढ़ाने के लिए बोर्ड और निगमों की स्थापना की लेकिन आज यह सभी बोर्ड व निगम राजस्व व रोजगार बढ़ाने की बजाए अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सरकार की ओर आर्थिक मदद के लिए ताकते रहते हैं और सरकार के राजस्व का अच्छा खासा हिस्सा चट कर जाते हैं। बोर्ड व निगम जिस उद्देश्य से बने थे उस उद्देश्य को भाजपा व कांग्रेस की सरकारों ने ताक पर रखकर अपने राजनीतिक हितों को साधने का एक जरिया बना लिया । सभी सरकारों ने निगम व बोर्डों का प्रबंधन अकुशल व राजनीति मे हारे व नकारे लोगों के हाथों में दिया इन लोगों ने बोर्ड- निगमों को सुख आश्रय समझा और अपने लिए सुखों का जमकर भोग  किया। वर्तमान सरकार को अगर अपने राजस्व को बढ़ाना है और रोजगार के अवसर पैदा करने हैं तो ऐसा करने से गुरेज करना होगा । शिक्षा एवं स्वास्थ्य संस्थानों में समाज के आर्थिक रूप से मजबूत लोगों से न्याय उचित फीस लेने की सोच बनानी पड़ेगी जो कर योग्य संस्थान व  वस्तुएं हैं उन पर उचित कर लगाना गलत नहीं होगा झूठी लोकप्रियता पाने के लिए “कम कर व्यव्स्था ” की परंपरा को समाप्त करना होगा ।

सरकार को कुशल अफसरों को उनके विभागों का लक्ष्य देकर नियुक्त करना होगा। सरकार व्यवस्था बदलने की नियत से आई है तो उसे भी राजनीतिक नियुक्तियों को भी योग्यता के आधार पर, ना कि सियासी उपयोगिता के आधार पर करने पड़ेंगे अगर मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू की सरकार ऐसा करती है तो कर्ज का पहाड़ भी पार होगा, रोजगार की गंगा भी बहेगी और लोग भी सहयोग करेंगे और  अंततः लोकप्रियता भी आसमान छू लेगी।

       

     

         

 

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