अभिभावक, बच्चों की शिक्षा के साथ-साथ परिवार प्रणाली का महत्वपूर्ण घटक है। वे अपने बच्चों के वस्यक होने तक उनकी देखरेख व मार्गदर्शन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परिवार बच्चे को समाजिक बनाने की प्रक्रिया को काफी हद तक पूरी करता है और उनके मानसिक विकास को भी प्रभावित करता है । बच्चों की देखभाल दुनिया भर में की जाती है। इस दृष्टिकोण को लेकर कई शोध हुए हैं और हो रहे हैं। बच्चा बड़ा होकर किस तरह के समाज का निर्माण करता है या उसके अभिभावकों, शिक्षकों, दोस्तों, सहपाठियों, स्कूल के खेल के मैदान में अर्जित आचार व्यवहार पर निर्भर रहता है।
आज की चर्चा का केंद्र है स्कूली शिक्षा में अभिभावकों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है इस बारे में कई शिक्षाविदों ने बहुत गहराई से काम किया है, विशेष तौर, पर पश्चिमी देशों में या काम हुआ है। भारत में भी इस महत्वपूर्ण विषय पर काम हो रहा है परंतु वह ज्यादातर किताबों, शोध लेखों या सम्मेलन कक्षाओं की दीवारों से टकराकर वही खत्म हो जाता है। वह आज तक अभिभावक की सोच को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने का जरिया नहीं बन पाया है।
अभिभावक की भागीदारी और विद्यार्थी की सफलता और असफलता के बीच सकारात्मक व नकारात्मक संबंध है। अपने बच्चों की शिक्षा में अभिभावकों या परिवार के हिस्सेदारी किसी अन्य सुधार कार्यक्रम की अपेक्षा ज्यादा असरदार है। शिक्षक को अध्यापक- अभिभावक साझेदारी का महत्व समझते हुए अभिभावक को उनके बच्चों की शिक्षा का भागीदार बनाना चाहिए। शिक्षक को यह समझ होनी चाहिए कि बच्चे की शिक्षा में अभिभावक का सहयोग कैसे प्राप्त करें।
यद्यपि सरकारों ने इस महत्वपूर्ण बिंदु को समझा और ग्राम शिक्षा समितियों व अभिभावक-अध्यापक संघ जैसे ढांचे बनाएं हैं । परंतु यह सब सकारात्मक पहलें नकारात्मक राजनीति की अग्नि में भस्म हो जाती हैं, जब इन समितियों या संघों का गठन होता है तो स्थानीय विधायक या नेता अपने समर्थकों, जिनका शिक्षा से दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है, को नियुक्त कर देता है। विधायक या राजनीतिक द्वारा नामित यह सदस्य छात्र-अध्यापक – अभिभावक के बीच में एक मजबूत शिक्षा सेतु बनने के बजाय अध्यापकों के तबादलों का जरिया बन जाता है।
जिस तरह आर्थिक, सांस्कृतिक व सामाजिक विकास उसके आसपास के वातावरण में शुरू होता है ठीक उसी तरह बच्चे की शिक्षा का विकास भी उसके वातावरण में शुरू होता है। एक छात्र का वातावरण उसकी पाठशाला में आने वाले अध्यापक, उसके पाठ्यक्रम की संरचना, उसको पढ़ाने का तरीका, उस पाठशाला के अध्यापकों का आपसी संबंध व आचरण, स्कूल के बाहर छोटी मोटी या बड़ी मार्केट, वाहन जिसमें वे स्कूल आता जाता है में जो भी वह अवलोकन करता है उसका आत्मसात करता है और उसको अपना अपने जीवन में अपनाता है । हमने कई बार देखा है कि कैसे छोटा बच्चा घर या स्कूल में कुर्सी पर बैठकर किस तरह से अपने माता-पिता, भाई बहनों या अपने सहयोगियों को चुपचाप बैठकर पढ़ने का निर्देश देता है। यानी बच्चा वह सब सीख रहा है जो उसके आसपास घट रहा है।
ठीक इसी तरह बच्चा अध्यापक-अभिभावक की मीटिंग में यह भी देखता है कि उसके अभिभावक उसकी शिक्षा को लेकर कितने गंभीर हैं या उसकी शिक्षा का उनके लिए क्या महत्व है ? अपने अभिभावकों का उसके शिक्षकों से मिलने के उत्साह, उनसे पूछे गए प्रश्नों को भी ध्यान से सुनता है अगर वह अध्यापक-अभिभावक की चर्चा को केवल मात्र औपचारिकता समझता है। तो वह अपनी शिक्षा को भी धीरे-धीरे औपचारिक ही समझ लेता है और अपना ध्यान उसी तरह से केंद्रित करता है। वह देखता है कि उसका शिक्षक उसके अवगुणों पर केंद्रित है तो वह अपने में सुधार की गुंजाइश को समाप्त समझता है और अगर वह देखता है कि उसका अध्यापक उसके अभिभावकों को सकारात्मक ढंग से उसकी कमियों को सुधारने की चर्चा कर रहा है तो बच्चों में विकास करने की ऊर्जा का संचार होता है। उनमें सृजनशीलता बहने लगती है।
हमारी नई शिक्षा नीति में इन बातों का ध्यान रखने का तो प्रयास किया है परंतु अधूरा लगता है। क्योंकि अभी भी, विशेष तौर पर , ग्रामीण स्कूलों जहां 70% बच्चे शिक्षा ले रहे हैं। इस बारे में अभिभावकों व अध्यापकों जागरूक करने के लिए कार्यशालाओं के आयोजन करने का प्रावधान नहीं है और अगर है तो सरकार के पास इस तरह के नवाचारी उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षकों को स्वयं भी अभिविन्यास अर्थात इस आधार को ग्रहण करने की सख्त जरूरत है। कुछ शिक्षक ऐसे भी हैं जो यह करने की इच्छा शक्ति रखते हैं उनमें सृजनशीलता के साथ साथ क्षमता भी है और समझ भी परंतु अभिभावकों की अपने बच्चों के लिए श्रेष्ठ, उत्तम व प्रथम आने जैसी उच्च अकांक्षाऐं महत्व अकांक्षाऐं जैसी अभिलाषा है जो इन शिक्षकों को या तो किनारे धकेल देती हैं या फिर उन्हें भी मजबूर होकर अन्य शिक्षकों शिक्षकों की तरह पेलम पेल में जुट जाना पड़ता है
ईर्ष्या से उत्पन्न कुछ बनने या बनाने के भाव अधिकतर अभिभावकों में आमतौर पर पाया गया है। अभिभावक-अध्यापक बैठकों में हुई चर्चाओं में या भी देखने को मिलता है कि अभिभावक अक्सर यह कह देते हैं कि मेरा बच्चा तो पहले उस बच्चे से अच्छा था यानी ज्यादा अंक हासिल कर करता था अब ऐसा क्यों है? इसको उस बच्चे के नोट उपलब्ध करवा दो ताकि यह भी उस जैसा हो जाए। अभिभावक का यह प्रश्न और भाव नकारात्मक है जो बच्चे को निरुत्साहित करता है। अभिभावक के इस प्रयास या भाव को विस्तार से बताने के लिए गन्ने के रस का उदाहरण सामने आता है। एक बच्चा गन्ने का रस पीना चाहता है। अभिभावक अपने बच्चे को एक गन्ना खरीद कर देता है और उसे वह इसका रस चूस कर तृप्त होने को कहता है और दूसरा अभिभावक मशीन से निकले गन्ने के रस का गिलास देता है और संतुष्ट होने को कहता है। किस बच्चे को गन्ने का रस पीने से अधिक अनुभव हुआ है या अभिभावक को समझना होगा। अभिभावकों को श्रेष्ठ, उत्तम, अंकों या प्रथम आने जैसी अभिलाषाओं से बाहर निकल कर बच्चों की सृजनशीलता पर केंद्रित होना चाहिए।
जो शिक्षा हम किसी जुगाड़ आदि के दम से प्राप्त करते हैं क्या वह छात्र को संपूर्णता का ज्ञान करवाती है? क्या छात्र संपूर्ण ज्ञान की अनुभूति करता है ? छात्र जो सफलता की कुंजी से अच्छे अंक प्राप्त करता है? क्या वह उस विषय प्रश्न की संपूर्णता को जानता है। संपूर्णता को जाने बिना मनुष्य मानवता की भावना से चूक जाता है वह अपनी अनुभूति को सांझा करने असफल हो जाता है। अभिभावक बच्चों को परिणाम उन्मुख यंत्र न बनाएं

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