
मोहिंद्र प्रताप सिंह राणा/ग्राम परिवेश
हिमाचल की हरी-भरी पर्वत श्रंखलाएं दशकों से एक ख़ामोश लूट की गवाह बनती आई हैं। 70 के दशक से सिल्वर स्प्रूस, खिड़की और देवदार जैसे बहुमूल्य पेड़ों को काटकर वन भूमि पर सेब के बगीचों की हरियाली बिछाने का खेल जारी है—एक ऐसा खेल जो पर्यावरण के नाम पर नहीं, बल्कि लाभ के बही-खाते पर आधारित है।
अब जब उच्च न्यायालय ने इस अवैध बागवानी पर आरी चला दी और वन विभाग को अतिक्रमण हटाने के स्पष्ट आदेश दिए, तो सरेआम सदाबहार पेड़ों को काटने वालों की सेब के पेड़ों की ‘सदाबहार चिंता’ एकाएक जाग उठी। जो संघ अब तक मूकदर्शक बना था, वह अचानक ‘सेब प्रेम’ के झंडे लेकर मैदान में उतर आया।
हिमाचल प्रदेश सेब उत्पादक संघ (Seb Utpadak Sangh) ने हाल ही में अतिक्रमित वन भूमि पर सेब के बागीचों के कटान को लेकर गंभीर चिंता व रोष व्यक्त किया है। संघ ने दावा किया है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 166 के तहत कार्रवाई के नाम पर किसानों को उनके जीविकोपार्जन के आधार से वंचित किया जा रहा है, जबकि यह पूरा मामला अब भी हिमाचल प्रदेश भूमि राजस्व अधिनियम 2000 में जोड़ी गई धारा 163 A के तहत किए गए नियमितीकरण आवेदनों के मूल उद्देश्य से भी भटकती प्रतीत होते हैं ।
संघ का कहना कि यह स्थिति किसानों के जीवन आजीविका और संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीवन के अधिकार के उल्लंघन की ओर संकेत करती है और पूनम गुप्ता बनाम राज्य सरकार की सिविल रिट याचिका में अंतिम निर्णय आना अभी शेष है।
इसी के साथ सेब उत्पादक संघ ने न्याययिक निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े किये। सेब उत्पादक संघ ने सेब को वन प्रजातियों में गिनाते हुए कहा कि सेब का मूल वंश (मालस सिल्वेस्ट्रस) है,अतः यह वन प्रजाति में आता है ।
एक ओर हजारों साल पुराने सिल्वर स्प्रूस, देवदार और खिड़की के वृक्ष काटे जाते रहे और तब ये छद्म -(pseudo) पर्यावरणविद् सन्नाटे में सोए रहे, वहीं आज जब अदालत के आदेश पर अतिक्रमण हटाया जा रहा है, तो यही लोग ‘हरियाली के रक्षक’ बनने का मुखौटा पहनकर खड़े हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री व भाजपा के वरिष्ठ शांता कुमार ने भी हिमाचल सरकार से वन भूमि पर लगे सेब के बगीचों को काटने के बजाय उन्हें अपने कब्जे में लेने का आग्रह किया है और अवैध कब्जे करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करते समय मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। उन्होंने वृक्षों को काटने से होने वाले नुकसान और जीव हत्या के पाप की भी बात कही।

शांता जी,आज भी सदाबहार पेड़ों को सुखाने व बगीचे का क्षेत्रफल बढ़ाने का खेल जारी है।
राजनीति का यह विचित्र संयोग देखिए—बामपंथी, दक्षिणपंथी और सत्ताधारी—all in one voice! सत्ता की गद्दी भले अलग-अलग हों, लेकिन सेब के पेड़ों के नीचे की ज़मीन सबको प्यारी है। एक स्वर में वे न्यायालय के फैसले को या तो घुमा-फिराकर या फिर खुल्लमखुल्ला गलत ठहरा रहे हैं।
अब सवाल यह उठता है कि शांता कुमार का यह ‘पुण्य-बोध’ और मानवीय दृष्टिकोण उस वक्त क्यों मौन था, जब उनके शासनकाल में सिल्वर स्प्रूस, देवदार और अन्य दुर्लभ वृक्षों को खुलेआम सुखाकर काटा गया था? क्या तब पर्यावरण कोई मुद्दा नहीं था, या ‘पाप’ की परिभाषा पद-प्राप्ति से बदल जाती है? दुर्भाग्य यह है कि यह कुटिल प्रक्रिया आज भी बेरोक जारी है।
आख़िर सवाल यही है—जब सदियों पुराने पेड़ काटे जा रहे थे, तब पर्यावरण की आत्मा क्यों नहीं कांपी? अब जब उन अतिक्रमणों को हटाया जा रहा है, तो अचानक इकोलॉजी की दुहाई क्यों? लगता है, पेड़ नहीं, नैतिकताएं ही काटी जा रही हैं।
उधर गांव की चौपाल, सोशल मीडिया और जनसामान्य की बोलियों में एक दूसरी ही गूंज रही है, आवाज है कि वन भूमि पर कब्ज़ा चाहे सेब के नाम पर हो, सीमेंट के नाम पर या फिर हाईड्रो परियोजना के नाम हों हटाए जाने चाहिए, “ग़लत तो ग़लत ही है”।
जहाँ तक वन भूमि के आबंटन का प्रश्न है, आज यह ज़रूरी है कि वर्तमान सरकार कठोर प्रशासनिक रेखाओं और पारदर्शी नीति के तहत एक न्यायसंगत व्यवस्था विकसित करे, ताकि छोटे और मझोले किसान व बागवानों को नियमानुसार भूमि मिल सके और अवैध कब्जे की संस्कृति का अंत हो।