
मोहिंद्र प्रताप सिंह राणा/ग्राम परिवेश
प्रदेश की आर्थिक बदहाली, हर वर्ष आपदा की क्रूर मार और केंद्र सरकार की निरंतर उपेक्षा के बीच सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार वित्तीय संकटकाल से जूझ रही है। यह भी सत्य है कि पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा केवल ऋण लेकर घी पीने की कुपरंपरा ने प्रदेश को आर्थिक दलदल में धकेला, और सुक्खू सरकार उसे तोड़ने हेतु निरंतर प्रयासरत है।
इस दिशा में सरकार ने कई सराहनीय पहलें की हैं, परंतु कुछ ऐसे निर्णय भी लिए हैं जो जनविरोध और नैतिक प्रश्नों के केंद्र में आ खड़े हुए हैं। हर गली में शराब की दुकानें खोलना, पर्यटन के नाम पर हरे-भरे जंगलों का अवैज्ञानिक कटान, और अब राजस्व के नाम पर लॉटरी जैसी सामाजिक बुराई को फिर से शुरू करना—ये सारे कदम सरकार की नैतिक दृष्टिहीनता की ओर संकेत कर रहे हैं।
राजस्व में 50 से 100 करोड़ की संभावित वृद्धि का तर्क देकर लॉटरी का समर्थन किया जा रहा है, परंतु यह एक सामाजिक विष है जो पहले भी हजारों परिवारों को आर्थिक और मानसिक बर्बादी की गर्त में धकेल चुका है। 1999 में जब प्रो. प्रेम कुमार धूमल ने लॉटरी को बंद किया था, वह एक संवेदनशील जनकल्याणकारी निर्णय था। उस समय के अनुभव बताते हैं कि लोगों ने बीवी के गहने, बच्चों की फीस, घर-दुकान तक बेच डाले थे और कुछ ने आत्महत्या जैसे कठोर कदम तक उठाए। ऐसे में उस त्रासदी को पुनः जीवित करना, सामाजिक जिम्मेदारी से सरासर विमुखता है।
यह बात सही कि धूमल सरकार लाटरी बंद करने का इतना निर्णायक कदम इसलिए उठा पाई थी तत्कालीन केंद्रीय सरकार से धूमल सरकार को उदार औद्योगिक व आर्थिक पैकेज प्राप्त हो रहे थे, वर्तमान केंद्र सरकार का रवैया—सहयोग नहीं, सियासी सौदेबाज़ी का है। आज की कांग्रेस सरकार को बार-बार दिल्ली से निराश होकर खाली हाथ लौटना पड़ रहा है। 2023 की आपदा के बाद भी संपूर्ण पुनर्वास राशि अभी तक नहीं मिली, मनरेगा जैसी योजनाओं का पैसा महीनों रोका गया, कार्य दिवस कम कर दिए जिससे गरीब व निम्न मध्यमवर्गीय लोगों चूल्हा चौका चलता है, और केंद्र प्रायोजित योजनाओं में भारी कटौती कर दी गई।
इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि संघीय ढांचे की मर्यादा को तार-तार करते हुए केंद्र सरकार ने अब राहत राशि को भी भाजपा विधायकों के क्षेत्रों तक सीमित करने की परोक्ष नीति अपनाई है। क्या अब आपदा राहत भी राजनीतिक निष्ठा के आधार पर बंटी जाएगी? क्या यह संघीय गणराज्य की आत्मा के विरुद्ध कुठाराघात नहीं है?
बड़े बाबुओं की भोगवादी संस्कृति—नियोजन नहीं, नशा है सुविधा का:
प्रदेश की आर्थिक नीतियों में ‘बड़े बाबू’ यानी वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका भी कम सवालों के घेरे में नहीं है। यह वर्ग अक्सर नीतियों को जनहित से अधिक अपने विलास और सुविधा के चश्मे से देखता है। वातानुकूलित निगे दफ्तरों में बैठकर ये अधिकारी योजनाओं की नहीं, अपनी सुख-सुविधा की रूपरेखा बनाते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री प्रो.प्रेम कुमार धूमल के मुख्यमंत्रित्व काल में एक बड़े बाबू ने प्रदेश में कैसीनो खोलने आय बढ़ाने की सलाह दी लेकिन प्रो धूमल ने लताड़ लगाई थी।
लग्जरी गाड़ियों की अंधी दौड़—52 से 92 लाख की मर्सिडीज़, टोयोटा, थार जैसे महंगे वाहन—बिना जनता की आवश्यकता को समझे खरीदे जा रहे हैं। करोड़ों रुपए फाइव स्टार होटलों, विदेशी भ्रमणों, और नेता व अधिकारियों की शान-ओ-शौकत पर खर्च किए जा रहे हैं। जिनकी तनख्वाहें पहले ही लाखों में हैं, वही लोग जनता को मितव्ययिता और आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाते हैं। यह वास्तव में योजनाओं की नहीं, संवेदना की दरिद्रता है।
जब आम आदमी को अपने बच्चों की फीस, दवा, राशन तक के लिए संघर्ष करना पड़े, और वहीं सरकारी अमला महंगी गाड़ियों और आरामदेह जीवनशैली में डूबा हो—तो यह लोकतंत्र का सबसे विद्रूप और असंवेदनशील चेहरा बन जाता है।
राजस्व बढ़ाने के लिए लॉटरी, शराब, और हरे भरे ‘सुंदर’ वनों का अंधाधुंध कटान जैसे निर्णय, तात्कालिक लाभ तो दे सकते हैं, परंतु आने वाली पीढ़ियों को सामाजिक व मानसिक दुर्बलता में झोंक देंगे। अफीम, भांग या कैसीनों के सुझावों से प्रेरित होना, ‘आय बढ़ाओ’ की नीति को ‘संस्कृति गिराओ’ में तब्दील कर देगा।

यह फोटो हिमांशु मिश्रा की फेसबुक वॉल से ली है । यह हरे भरे ‘सुंदर’ जंगल कुल्लू बिजली महादेव मंदिर के आस-पास के हैं।
उल्लेखनीय है कि अतीत में देहरा के पूर्व विधायक होशियार सिंह ने भी विधानसभा में कैसीनों के समर्थन में तर्क दिए थे, जिन्हें सुक्खू सरकार ने नकार दिया। आज यदि वही सरकार लॉटरी जैसी प्रवृत्तियों को पुनर्जीवित कर रही है तो यह आत्मविरोधी आचरण है। क्या 50-100 करोड़ के लिए समाज का नैतिक ढांचा दांव पर लगाना उचित है, जबकि यह राशि तो केवल लाट साहब ,मंत्रियों-विधायकों की विदेश यात्राओं, लग्ज़री गाड़ियों और अफसरशाही की फिजूलखर्ची पर रोक लगाकर ही बचाई जा सकती है !