
मोहिंद्र प्रताप सिंह राणा/ग्राम परिवेश
रिज मैदान पर हाल ही में स्वर्गीय वीरभद्र सिंह की प्रतिमा का स्थापित होना हिमाचल के राजनीतिक इतिहास में एक प्रतीकात्मक क्षण था। परंतु इस प्रतीक के पीछे जो दृश्य घटित हुआ, वह सत्ता, संवेदना और विरासत के अर्थों पर गहरी पड़ताल मांगता है। प्रतिमा के अनावरण से ठीक एक दिन पहले “वीरभद्र स्कूल ऑफ थॉट” और “वीरभद्र सिंह फाउंडेशन” से जुड़े कुछ प्रतिनिधियों ने रिज के दुर्लभ चिनार वृक्ष की लगभग उन्नीस टहनियाँ और पास खड़े एक नाजुक सजावटी पौधे को काट दिया। कारण था—मूर्ति के वैभव को अधिक दृश्यता देना। यह छोटा-सा कृत्य उस बड़ी मानसिकता को उजागर कर गया जहाँ वैभव की परिभाषा त्याग में नहीं, प्रदर्शन में खोजी जाती है।
रिज का वह चिनार दशकों से शिमला की आत्मा का हिस्सा है। उसकी छांव ने न जाने कितने राहगीरों को विश्राम दिया और उसकी शाखाओं ने हर मौसम में जीवन का कोई न कोई संदेश सुनाया। गर्मियों में वह अपनी हरियाली से राह बनाता है, तो सर्दियों में पत्तों का त्याग कर धूप को धरती तक उतरने देता है। उसका मौन चिंतन कहता है—वैभव छांव देने में है, न कि दूसरों को काटने में। यह वृक्ष दुर्लभ इसलिए नहीं कि उसकी प्रजाति कम है, बल्कि इसलिए कि उसमें संवेदनशीलता, विनम्रता और दूसरों को स्थान देने की चेतना है।
प्रतिमा अनावरण समारोह के मंच से उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री ने वीरभद्र सिंह की जंगलों और पेड़ों के प्रति संवेदनशीलता पर भाषण देते हुए कहा कि पेड़ों की रक्षा के लिए वीरभद्र सिंह ने सेबों की पैकिंग हेतु लकड़ी की पेटियों पर प्रतिबंध लगाया था। किंतु उनका यह वक्तव्य तथ्यों से परे है। वास्तव में यह आदेश तत्कालीन वन मंत्री प्रो. चंद्र कुमार ने जारी किया था, जिसके परिणामस्वरूप वीरभद्र सिंह ने उनसे यह विभाग वापस लेकर स्वर्गीय पंडित संत राम को सौंपा और उन्होंने तत्काल प्रभाव से आदेश रद्द कर दिया। परंतु इसका अर्थ यह नहीं था कि वीरभद्र सिंह जंगलों और वृक्षों के प्रति संवेदनहीन थे। इतिहास स्वयं इसका साक्षी है।
सन् 2007 में जब रिज मैदान के एक कोने में स्थित सदियों पुराने हॉर्स चेस्टनट वृक्ष पर अज्ञात रोग का आक्रमण हुआ, तब मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने वन विभाग को उसका उपचार करने का निर्देश दिया। विभाग ने कारण खोजा, उपचार किया, और आज भी वह वृक्ष अपनी भव्यता के साथ खड़ा है—यही प्रमाण है कि वीरभद्र की संवेदनशीलता केवल शब्दों में नहीं, कर्म में थी।
लेकिन जिन लोगों ने उनके “थॉट” को आगे बढ़ाने का दावा किया, वे उनकी इस मूल चेतना से कोसों दूर दिखे। उनके लिए प्रतिमा विचार का प्रतीक नहीं, राजनीतिक पूंजी बन गई। मंच से वीरभद्र की संवेदना की दुहाई दी गई, और उसी छांव के नीचे उस चिनार की शाखाएँ काट दी गईं जिसने वर्षों तक शिमला को छांव दी थी।
हां, वीरभद्र सिंह राजनीतिक “कांट-छांट” में घुटे हुए राजनीतिज्ञ थे। ठियोग की एक चुनावी सभा में उनकी वह प्रसिद्ध पंक्ति—“अगर फूल हाथ से नहीं टूट रहा है, तो दरांती से काट दो”—ने कम्युनिस्ट उम्मीदवार को एक झटके में जिता दिया था। मगर उनका वह ‘काटना’ रणनीति थी, निर्दयता नहीं; वह राजनीति की धार थी, संवेदना की हत्या नहीं।
यही वह विरोधाभास है जिसने “थॉट” को “विचार” से अलग कर दिया—जहाँ संवेदना की जगह प्रदर्शन ने ले ली।
आज सोशल मीडिया से लेकर कॉफी हाउसों और चौक-चौराहों तक चर्चा है कि “हिमाचल में अब वीरभद्र कांग्रेस आकार ले रही है।” यह चर्चा बताती है कि यह तथाकथित स्कूल ऑफ थॉट वीरभद्र के विचार से नहीं, उनकी विरासत के स्वामित्व की प्रतिस्पर्धा से जन्मा है। यही वह क्षण है जहाँ चिनार का चिंतन और यह थॉट टकराते हैं। चिनार देता है—छांव बनता है, दूसरों को स्थान देता है; जबकि यह थॉट स्पॉटलाइट चाहता है—वह विचार से अधिक प्रचार चाहता है, संवेदना से अधिक दृश्यता।
रिज का चिनार आज भी खड़ा है—अपनी कटी टहनियों के घाव लिए हुए, मूक पर विचारशील। उसकी मौन उपस्थिति उस दौर पर टिप्पणी करती है जहाँ संवेदना को हाशिये पर डाल दिया गया है और प्रदर्शन को प्रतिष्ठा मान लिया गया है। वह मानो कह रहा है—जो सोच अपने वैभव के लिए दूसरों की जड़ें काटती है, वह इतिहास में नहीं, विज्ञापनों में ही जीवित रहती है।
यह प्रसंग मात्र पर्यावरण या मूर्ति-स्थापना का नहीं है, यह सत्ता और संवेदना के टकराव का प्रतीक है। एक ओर चिनार का मौन चिंतन है—जो त्याग में वैभव देखता है; और दूसरी ओर थॉट का शोर—जो वैभव में विचार ढूंढता है। हिमाचल की राजनीति को यह तय करना होगा कि वह किस छांव में खड़ी होना चाहती है—चिनार की संवेदना की छांव में या प्रतिमाओं की कठोर छाया में।