पांच राज्यों के चुनाव भाजपा ने अपने सबसे बड़े व करिश्माई चेहरे नरेन्द्र मोदी के बूते पर लड़े हैं। इन राज्यों के प्रांतीय नेताओं, मुख्यमंत्रियों व पूर्व मुख्यमंत्री को नेपथ्य में ठेल दिया गया था भाजपा की इस रणनीति के पीछे क्या कोई पार्टी का अपना खुफिया सर्वे रहा है या फिर 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी ! स्थानीय नेताओं में बढ़ती अंतर्कलह है और अलोकप्रियता भी एक मुख्य कारण हो सकता है। कारण कोई भी रहा हो लेकिन भाजपा ने ब्रांड मोदी को जिस तरह से इन चुनावों में झोंका है वह जोखिम भरा भी हो सकता है ।भाजपा जब चुनाव में उतरती है तो वह चुनाव जीतने की हर संभव कोशिश करती है यही कारण है कि भाजपा चुनावी चौसर पर अपने प्यादों की चाल पर या उनको ढाल बनाकर अपनी चालें नहीं चलती है । वह अपने हाथी घोड़े ऊंट वजीर सब फ्रंट लाइन पर खड़ा करती है भाजपा ने इन पांच राज्यों में अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय मंत्रियों ,लोकसभा सदस्यों ,पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं को भी चुनावी समर में उतार दिया है
भाजपा को जब यह लगा की यह भी पूरी तरह से अभेद्य नहीं है तो ब्रांड मोदी को पूरी तरह से चुनावी समर में झोंक दिया। नरेंद्र मोदी का राजस्थान ,छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में वसुंधरा ,शिवराज चौहान ,नरेंद्र सिंह तोमर व विजय वर्गीय जैसे प्रांतीय दिग्गज नेताओं की मौजूदगी के बाद जिस तरह से चुनाव प्रचार में उतारा है वह भाजपा की इन राज्यों में कमजोर स्थिति का भी संकेत देता है। इन चुनावों से पहले भी भाजपा ने बंगाल विधानसभा चुनाव में ब्रांड मोदी को पूरी तरह से उतरा था ।बंगाल में भाजपा व आरएसएस की ना तो उतनी ज्यादा पकड़ थी और ना ही कोई मजबूत संगठन था इसलिए भाजपा को अपने करिश्माई चेहरों को वहां उतरना पड़ा था। मध्य प्रदेश राजस्थान व छत्तीसगढ़ में तो भाजपा का काडर सबसे मजबूत है और वहां वसुंधरा शिवराज नरेंद्र तोमर जैसे बड़े चेहरे हैं उन सब के बावजूद भाजपा को प्रधानमंत्री मोदी का सहारा लेना पड़ रहा है। इन तीन राज्यों में भाजपा की अंतर्कलह भी खुल के सामने आई है। राजस्थान के एक बड़े नेता नरपत सिंह राजवी, जो चित्तौड़गढ़ से भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं, का एक साक्षात्कार समाचार पत्र में छपा है जिसमें उन्होंने खुलकर
कहा है कि भाजपा की ताकत उसका कार्यकर्ता है। जिसके कारण भाजपा लोकसभा में दो सीटों से बढ़कर 300 का आंकड़े पार किया है। परंतु आज उस कार्यकर्ता का पार्टी में सम्मान नहीं है। विगत 10 वर्षों में पार्टी में पंच तारा होटल की संस्कृति पनपी है । कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच संवाद में कमी आई है। नेता कार्यकर्ताओं को अपनी बात सुना कर चले जाते हैं, उनकी बात नहीं सुनते हैं । उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि भाजपा “मिस्ड कॉल” के दौर में चल रही है। भाजपा का कार्यकर्ता दु:ख दर्द को कम करने वाले स्पर्श को मिस कर रहा है। नरपत सिंह राजवी ने यह भी कहा कि भाजपा राजनीतिक विचारधारा से दूर होती जा रही है और साधु संतों, सिने सितारों व खिलाड़ियों के आगोश में सिमटी जा रही है। नरपत सिंह राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री व हिंदुस्तान के पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के दामाद हैं। यही हालत मध्य प्रदेश का है। वहां भी मुख्यमंत्री शिवराज चौहान “महाराज” जैसे तंज अपनी पार्टी के नेताओं को कसते हैं।
इन सब विपरीत परिस्थितियों के चलते भाजपा ने इन चुनावों में बड़ा जुआ खेला है । पार्टी ने नरेंद्र मोदी को जिस तरह चुनाव अभियान में झोंका है, पार्टी के हारने की स्थिति में मोदी ब्रांड का रंग भी फीका पड़ सकता है। अभी तक मोदी की पहचान अपने बूते पर चुनाव जितवाने की है अर्थात ” मोदी है तो मुमकिन है” और यह पहचान और भरोसा विगत ढाई वर्षो में बंगाल, हिमाचल प्रदेश व कर्नाटक हारने के बाद भी बनी हुई है। यद्यपि इन तीनों राज्यों की हार ने मोदी के चेहरे के आकर्षण को कम किया है। इसके बावजूद भाजपा ने प्रांतीय नेता पर भरोसा करने की जगह मोदी के चेहरे पर दाव खेला है। मोदी ने भी हर चुनावी सभा में सीना ठोक कर कहा है कि यह मोदी की गारंटी है। इस पर वोट करें यह ठीक है की मोदी भाजपा के प्रांतीय नेताओं की कमियां, कमजोरी कथित भ्रष्टाचार के आरोपों, पार्टी के भीतर की कलह को अपनी गारंटी से ढकने का प्रयास कर रहे हैं परंतु बलवती प्रश्न अभी भी बना हुआ है कि अगर जनता ने कर्नाटक और हिमाचल की तरह इन पांचों राज्यों में मोदी के चेहरे व गारंटी को अस्वीकार दिया तो भाजपा को यह बहुत भारी पड़ सकता है।
विगत अढ़ाई सालों में भाजपा के विधानसभा चुनाव के प्रदर्शन को देखें तो बहुत उत्साहित करने वाला नहीं है। बंगाल में जहां भाजपा काडर ज्यादा नहीं है वहां भाजपा ने टीएमसी में तोड़फोड़ की और मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा लेकिन हार गई। भाजपा बंगाल में भले ही हार गई परंतु राजनीतिक रणनीति में जीत गई क्योंकि वह बंगाल में काडर बनाने में सफल हो गई। परंतु हिमाचल की हार ने भाजपा का अश्वमेधी रथ रोक दिया। हिमाचल प्रदेश में भाजपा की चुनावी हार के साथ-साथ रणनीतिक हार भी हुई क्योंकि यहां कांग्रेस ने 2022 का चुनाव बिना नेतृत्व के लड़ रही थी। पार्टी का कार्यकर्ता भी विमूढ़ स्थिति में था परंतु धीरे-धीरे उसमें जोश आया और बिना नेतृत्व के भी विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी और मौजूदा राजनीति के चाणक्य व अभिजीत नेता मोदी को मात दी। इसी तरह कर्नाटक में कांग्रेस के क्षेत्रप सिद्धा और शिव कुमार की जोड़ी ने भाजपा के धुआंधार प्रचार व राष्ट्रीय नेताओं के हर बार का सही प्रति उत्तर दिया और विजयश्री प्राप्त की।
भारतीय राजनीति का हाल के वर्षों में परिदृश्य बदला है। प्रांतीय क्षेत्रप राष्ट्रीय नेताओं को चुनौती दे रहे हैं और सफलता प्राप्त कर रहे हैं । हाल में हो रहे पांच राज्यों के चुनावों में भी सियासी पटल पर ऐसा ही दृश्य है। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस के क्षेत्रप चुनावी समर में एक दूसरे को चुनौती दे रहे हैं। राजनीति का यह परिदृश्य राजनीतिक रूप से भाजपा के पक्ष में नहीं है। मोदी भाजपा के लिए ब्रह्म अस्त्र हैं से कम नहीं है और उनका इस तरह उनका प्रयोग करना राजनीतिक चूक भी हो सकता है। इन राज्यों के चुनाव परिणाम के उपरांत भाजपा अपनी सियासी चौसर को 2024 के लिए कैसे तैयार करती है वह कल 3 तारीख को पांच राज्यों के चुनाव परिणाम पर निर्भर करता है।

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