मोहिंद्र प्रताप सिंह राणा/ग्राम परिवेश 

आज आशियाना रिज की निस्तब्धता में दृष्टि अनायास टहनियां कटे चिनार पर ठहर गई। पत्तों की सरसराहट में जैसे कोई धीमा संवाद था —

मौन, पर अर्थों से भरा।क्षणभर लगा, वह वृक्ष कुछ कह रहा है —मानो संवेदना और सामंती सोच के बीच कहीं से आवाज़ उठ रही हो। मैंने मन की खिड़की खोली और उस चिनार को सुना —वह “वीरभद्र स्कूल ऑफ थॉट” से बात कर रहा था, इतिहास से, समय से, और शायद हम सब से भी।उस क्षण के मर्म ने मन में कुछ शब्द उकेर दिए —

जो मेरे नहीं, उस चिनार की आत्मा के हैं। तथ्यों में यह संवाद आगामी रविवार को गूंथूंगा, पर अभी, यह बस उसकी सांसों की प्रतिध्वनि है —संवेदनशीलता और सामंतवाद के बीच बोलता हुआ एक चिनार।

“मैं चिनार हूँ…”

(संवेदना और सामंतवाद का संवाद)

मैं चिनार हूँ…
वही जो रिज की गोद में खड़ा था —
जहाँ से हिमाचल की आत्मा हर शरद ऋतु में धूप की भाषा बोलती है।

मेरी शाखाओं ने देखा —
कितनी ऋतुएँ आईं, कितने मौसम गुज़रे,
कितने मुखौटे सत्ता ने संवेदनशीलता के नाम पर पहने।

मैंने धूप बाँटी थी,
उनके लिए जो थके थे, जो भूले हुए थे,
जो केवल छांव ढूंढ रहे थे —
न पद, न प्रतिमा।

पर एक दिन,
मुझे बताया गया कि मेरी उन्नीस टहनियाँ
किसी मूर्ति के वैभव में बाधा हैं।
मैंने हँसकर सोचा —
“कैसा वैभव है जो छांव से डरता है?”

काट दी गईं मेरी टहनियाँ…
क्योंकि किसी “स्कूल ऑफ थॉट” ने सिखाया था —
जो तेरे दृश्य को ढँकता है,
उसे दृश्य से हटा दो।

वह नहीं जानते थे —
मैं हर वर्ष त्याग करता हूँ,
अपने पत्ते गिराता हूँ, ताकि राहगीर धूप ले सकें।
मैंने तो वैभव को कभी पत्तों में नहीं,
करुणा में पाया था।

पर उन्हें वैभव चाहिए था,
जो पथरीला हो, ऊँचा दिखे, और आत्मा से परे हो।
उन्होंने मुझे काटा —
और सोचा, उन्होंने दृश्य साफ़ कर दिया।
पर नहीं —
उन्होंने अपना *विवेक* काट दिया।

मैं चिनार हूँ…
मुझमें जीवन का चक्र बसता है —
हर गिरता पत्ता एक विनम्रता है,
हर नयी कोंपल एक क्षमा।

पर तुम्हारे “वीरभद्र स्कूल ऑफ थॉट” में
ना क्षमा है, ना करुणा,
सिर्फ़ पद की ऊँचाई है —
जो हर छांव को छोटा दिखाना चाहती है।

तुम्हारी मूर्तियाँ चमकेंगी,
पर मेरी जड़ों की नमी रहेगी —
क्योंकि संवेदना मिटाई नहीं जाती,
वह हर कटे तने में फिर से उग आती है।

मैं चिनार हूँ…
कटा भी तो जीवन बोता हूँ,
झुका भी तो आकाश को छूता हूँ।

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