नेताओं की जुगनुओं की रोशनी, घोषणाओं की बर्फ की सिल्लियां और सिराज की स्याह हकीकत।

मोहिंद्र प्रताप सिंह राणा/ग्राम परिवेश
नेताओं की आदत बड़ी निराली है—जहां कोई त्रासदी दस्तक देती है, वहीं वे एक हाथ में चमकते जुगनू और दूसरे में पिघलती घोषणाओं की बर्फ की सिल्ली थामे प्रकट हो जाते हैं। कैमरों की फ्लैश, अफसरों की कतार, और उनके पीछे खड़े छत्रधारी चमचे — सब मिलकर एक दृश्य रचते हैं, जिसमें राहत कम और राजनीति की रेखाचित्र अधिक होते हैं। पीड़ा के अंधेरे में वो अपने ‘जुगनू’ से रोशनी दिखाने का अभिनय करते हैं, और ‘घोषणाओं की सिल्ली’ से लोगों की जलती ज़िंदगी पर ठंडक पहुंचाने का नाटक करते हैं।
सिराज की हालत आज कुछ ऐसी ही बेहाल और बदहाल है। रजनीश शर्मा (ग्लोबल जूरिस्ट) और स्थानीय जनप्रतिनिधियों की पोस्टें, वीडियो और तथ्य बताते हैं कि सुराह, ऊंधीगाड़, खुनागी, खमराड़ा, डोगरी, किलन, मुरहाड़ा की 90% ज़मीन तबाह हो चुकी है। सराहा गांव मानो नक्शे से मिटा दिया गया हो। बिजली, पानी, सड़क, राशन और स्कूल जैसी बुनियादी सुविधाएं एक महीने बाद भी हवा में हैं, जबकि ज़मीन पर केवल मलबा और मायूसी पसरी है।
मठैनी खड्ड और सराह खड्ड बार-बार उफन रही हैं, लोग डर और दहशत में जी रहे हैं, पर सत्ता और विपक्ष के नेता अब भी अपने कंधे पर “दावों की पोटली” खींसे में आपदा प्रभावित की सूची और आंखों में “राजनीतिक विज्ञापन की चमक” लेकर टहल रहे हैं।
मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, राजस्व मंत्री — सबके दौरे, घोषणाएं, भाषण और अखबारों की सुर्खियां—कुछ दिन बाद बस मलबे के नीचे दबी उन उम्मीदों की तरह हो जाती हैं जो कभी इन नेताओं के शब्दों में झलकी थीं।
यह विडंबना नहीं, राजनीति-प्रायोजित संवेदनहीनता है।
जिन नेताओं ने हर प्रभावित गांव जाने, हर पीड़ित की सुध लेने, पुनर्वास शुरू करने और राहत पहुंचाने के दावे किए, उन्हीं के दावे -हथेली पर रखी बर्फ की सिल्ली- की तरह उनके दौरे के खत्म होते ही पिघल गए हैं।
आज अगर सिराज की तस्वीर किसी मंच पर साफ दिख रही है तो वह राजनीतिक विज्ञापनों व विज्ञप्तियां में नहीं, रजनीश शर्मा, राठी, बीएस राणा, कल्पना फाउंडेशन और सिराज आपदा सुझाव मंच की पोस्टों में दिख रही है। अखबारों में जो तस्वीरें चमक रही हैं, वे नेताओं के फोटोशूट हैं; जबकि गांवों में जो तस्वीरें उभर रही हैं, वे जिंदगी की स्याही में लथपथ हैं।
अगर जनता की बात सच है — और ज़मीनी हालात चीख-चीख कर इसकी तस्दीक कर रहे हैं — तो सरकार व राजनीतिक के दावे एक बार फिर खोखले हैं।
यह त्रासदी नहीं, व्यवस्था व राजनीति की त्रासदी है। यह आपदा नहीं, संवेदना की पराजय है।
राजनीतिज्ञों के पिघलते वायदों के बीच हेम सिंह ठाकुर एडवोकेट की एक उम्मीद जगाती सहभागिता की सलाह।
“श्रमदान बनें संबल, सिराज संवरें फिर से”
30 जून की आपदा ने सिराज की धरती को न केवल भौतिक रूप से छिन्न-भिन्न किया, बल्कि लोगों की उम्मीदों, सपनों और सुरक्षा के भाव को भी झकझोर कर रख दिया। जब सरकारें वादों की बर्फीली सिल्ली लेकर धीरे-धीरे पिघलती जा रही हैं, तब एक रास्ता है जो आज भी धूप की तरह स्पष्ट है — श्रमदान का।
यह समय केवल आलोचना का नहीं, अवसाद को आशा में बदलने का है। सिराज के मलबे में दबे हर आशियाने, हर टूटे रास्ते, हर सूखे नल और हर हारे हुए दिल को मानव श्रम की सामूहिक शक्ति फिर से संवार सकती है। श्रमदान अब मात्र एक योगदान नहीं, संघर्षरत समाज के प्रति उत्तरदायित्व बन गया है।
श्रमदान कैसे बने पुनर्निर्माण का आधार सफाई और मलबा हटाना – रास्तों को खोलना, गांवों को फिर से जीने लायक बनाना। पुनर्निर्माण – घरों, शालाओं, आंगनबाड़ियों को फिर से खड़ा करने में हाथ बंटाना।भोजन और जल वितरण – जिनके चूल्हे बुझ गए, वहां रोटी और पानी पहुंचाना ,चिकित्सा सहयोग – घायलों, बीमारों और बुज़ुर्गों को प्राथमिक उपचार देना। मानसिक संबल – जिनकी हिम्मत डगमगाई है, उन्हें कंधा देना, शब्द देना, साथ देना।
श्रमदान क्यों है आज की सबसे जरूरी ? सामूहिक चेतना का जागरण: जब प्रशासन थक जाए, तब समाज खुद को उठाए।आत्मगौरव की पुनर्प्राप्ति: मदद की अपेक्षा करने से कहीं अधिक संतोष, जब स्वयं सहारा बनें।नकारात्मकता की काट: पीड़ा की घनी छांव में आशा के दीप जलाना।
आपदा केवल टूटने की कहानी नहीं है, पुनर्निर्माण की शुरुआत भी है — और वह शुरुआत प्रशासन की प्रतीक्षा से नहीं, आपके हाथों की मिट्टी से सने हुए श्रम से होगी। सिराज आज बुला रहा है — वादों के नहीं, कर्म के दीप जलाने वालों को।
यदि आप सक्षम हैं, तो आइए —श्रमदान करें, सिराज को संवारें।मलबा हटाइए, मन जोड़िए, उम्मीदें फिर से बोइए।