
सरकार का निर्णय — न विकास, न सुधार, बल्कि हिमाचल के भविष्य पर संकट की दस्तक।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की राज्य समिति ने हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा *हिमाचल प्रदेश मुजारियत एवं भूमि सुधार अधिनियम, 1972 की धारा 118 में प्रस्तावित संशोधन को हिमाचल के हितों, संस्कृति और पर्यावरण पर सीधा प्रहार करार दिया है। पार्टी का कहना है कि यह कदम केवल एक कानूनी संशोधन नहीं, बल्कि हिमाचल के अस्तित्व, आत्मनिर्भरता और उसकी मिट्टी से जुड़ी अस्मिता पर कुठाराघात है।
राज्य सचिव संजय चौहान ने कहा कि धारा 118 को डॉ. वाई.एस. परमार के नेतृत्व में इसलिए जोड़ा गया था ताकि राज्य की भूमि, जल और जंगलों पर हिमाचल के लोगों का अधिकार सुरक्षित रह सके। यह प्रावधान हिमाचल की पर्वतीय आर्थिकी की रीढ़ और उसकी सामाजिक संरचना की रक्षा के लिए था। आज सरकार द्वारा इस धारा को कमजोर करने का प्रयास, पूंजी के दबाव में जनता के हक को बेचने का दुस्साहस है।
उन्होंने कहा कि सत्ता में आने के बाद चाहे भाजपा रही हो या कांग्रेस — दोनों ने समय-समय पर इस कानून को संशोधित कर पूंजीपतियों और कॉर्पोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने की कोशिश की है। वर्ष 2010, 2014 और 2019 में हुए ऐसे प्रयास जनता के भारी विरोध के कारण असफल हुए, परंतु आज फिर वही षड्यंत्र नए आवरण में सामने लाया जा रहा है। सत्ता में रहते हुए ये दोनों दल पूंजी के हित साधते हैं और विपक्ष में आते ही जनता के साथ होने का ढोंग करते हैं — यही शासक वर्ग का दोहरा चेहरा है, जिसने प्रदेश के संसाधनों को बार-बार लुटवाने का काम किया।
पार्टी ने कहा कि हिमाचल प्रदेश की 90 प्रतिशत जनता गांवों में बसती है और 88 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत हैं, जिनमें आधे के पास तो पाँच बीघा से भी कम जमीन है। प्रदेश की कृषि योग्य भूमि केवल 14 प्रतिशत है, जबकि 68 प्रतिशत भूमि वन क्षेत्र में आती है। ऐसे में यदि धारा 118 को शिथिल किया गया, तो हिमाचल की यह अल्प भूमि भी बड़े पूंजीपतियों और कॉर्पोरेट घरानों के कब्जे में चली जाएगी। किसान अपनी ही मिट्टी पर मजदूर बनकर रह जाएंगे, और ग्रामीण समाज की जड़ें उखड़ जाएँगी।
चौहान ने कहा कि यह संशोधन प्रदेश की पर्यावरणीय सुरक्षा को भी गहरे संकट में डाल देगा। हिमाचल पहले ही अवैज्ञानिक निर्माणों, फोरलेन, सीमेंट प्लांट और जलविद्युत परियोजनाओं की अंधाधुंध दौड़ से भारी आपदाओं का शिकार है। पिछले दो वर्षों में बाढ़, भूस्खलन और जलवायु असंतुलन से जो तबाही हुई, वह विकास के नाम पर चल रहे विनाश का परिणाम है। अब यदि भूमि अधिनियम में और ढील दी गई, तो यह प्रदेश की पारिस्थितिकी, जैव विविधता और सांस्कृतिक संतुलन के लिए विनाशकारी सिद्ध होगा।
पार्टी ने कहा कि विकास का अर्थ यदि जनता के अधिकारों को कुचलना और पूंजी को हिमाचल की धरती पर राज करने की खुली छूट देना है, तो ऐसा विकास अस्वीकार्य है। हिमाचल की जमीन, नदियाँ और जंगल प्रदेश की जनता की साझी धरोहर हैं — इन पर किसी कॉर्पोरेट का कब्जा न संविधान सम्मत है, न नैतिक।
कम्युनिस्ट पार्टी ने चेतावनी दी है कि यदि सरकार ने इस प्रस्तावित संशोधन को तुरंत वापस नहीं लिया, तो पार्टी जनसमर्थन के साथ एक **राज्यव्यापी आंदोलन** खड़ा करेगी और इस जनविरोधी निर्णय को जनता की ताकत से पलट कर रहेगी।
राज्य सचिव संजय चौहान ने कहा —
> “धारा 118 को छेड़ना, हिमाचल की आत्मा को छेड़ना है। यह प्रदेश डॉ. परमार की दूरदर्शिता, किसानों के संघर्ष और जनता के त्याग से बना है। इसे पूंजी की मंडी में बदलने की इजाज़त कोई सरकार नहीं पा सकती। हिमाचल की मिट्टी बिकने नहीं दी जाएगी — जनता अपने हक और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए निर्णायक संघर्ष करेगी।”
Section 118 of 1972 land reform Act is the life line of Himachal Pradesh. It will be suicidal step for the residents of the state to amend/dilute this section of the act. The people of the state will never allow any government to this.