वैज्ञानिकों के प्रणम्य प्रयासों से दुनिया में  भारत का इकबाल  बुलंद

जब से इंसान धरती पर पैदा हुआ है तब से लेकर आज तक मनुष्य ब्रह्मांड के रहस्य को जानने की सोच से वसीभूत है । इसी सोच से वशीभूत ऋषि मुनियों ने आध्यात्मिक दृष्टि से ब्रह्मांड को जाना और आधुनिक युग के वैज्ञानिक विज्ञान की सोच से अंतरिक्ष को खोज रहे हैं। 20वीं सादी के दूसरे दशक के ख्याति प्राप्त भारतीय वैज्ञानिक एस मित्र सीवी रमन और मेघा नंद साहा ने पराधीन भारत में ही आंतरिक खोज का जो भ्रूण तैयार किया था उसे आजादी के बाद 50 के दशक में गर्भनाल मिली, अर्थात आंतरिक खोज की सोच को संस्थागत किया गया। भारत के दो युवा जनूनी व ज़हनियत वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा व विक्रम साराभाई व तत्कालीन दूरंदेशी प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मिलकर ब्रह्मांडीय खोज के लिए नन्हा लेकिन ठोस कदम 23 फरवरी 1962 को नेशनल कमिटी आफ स्पेस रिसर्च की स्थापना करके उठाया ।         

20 में सदी के पांच में व छठे दशक में विश्व की दो महाशक्तियां अमेरिका भारत तत्कालीन यूएसएसआर के बीच आंतरिक खोज की होड़ लग गई 1957 में  यूएसएसआर ने अंतरिक्ष के रहस्य को खंगालने के लिए स्पूतनिक-1 को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया तो दूसरी महाशक्ति अमेरिका ने 1962 में एक्सप्लोरर-1 को ब्रह्मांड में भेजा।               

दुनिया की तत्कालीन महाशक्तियों की अंतरिक्ष होड़ व चीन के  साथ बढ़ते भारत के संघर्ष ने पंडित जवाहरलाल नेहरू को भारत के कुल 962 .9 करोड़ के  बजट में से थोड़ा सा पैसा इन्कोस्पार के लिए निकला और विक्रम साराभाई  को इन्कोस्पार का अध्यक्ष बनाया। विक्रम साराभाई अपने छात्र कल से ही रॉकेट उड़ने का प्रयोग करते रहते थे। साराभाई ने 1945 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि अर्जित की और 1947 में अपने घर में ही पीएलआर लैब शुरू की और अपने सपने (ब्रह्मांड की खोज) व अन्य पारिवारिक व वाणिज्य जिम्मेदारियां के साथ जीने लगे।      

लेकिन 1962 में होमी भाभा के प्रयासों व प्रेरणा से इन्कोस्पार में युवा वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम के साथ मिलकर इंडियन नेशनल कमिटी फॉर स्पेस रिसर्च ने अपने काम को शुरू करने के लिए केरल में स्थित एक छोटे से गांव को  चिन्हित किया परंतु इस जगह में उन्हें एक समस्या आई। इस जगह पर  मैरी मैग्डालेने चर्च थी । युवा वैज्ञानिक विक्रम साराभाई और एपीजे अब्दुल कलाम चर्च के पादरी से मिले और चर्च को वैज्ञानिक गतिविधियों के  प्रयोग के लिए देने की गुहार लगाई । जो वहां के ग्रामीणों व पादरी ने स्वीकार कर ली । इस तरह से इसरो की सफल यात्रा जो चर्च मैरी मैग्डालेने शुरू हुई और चांद की धरती शिव शक्ति स्थान पर पहुंच गई और यहां से आगे बढ़ने के लिए तत्पर है।           

21 नवंबर 1963 को विक्रम साराभाई और युवा वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम ने  रॉकेट को साईकिल से मेरी मैग्डालेने  के लिए ट्रांसपोर्ट और, डॉक्टर होमी भाभा “द फादर ऑफ़ इंडियन न्यूक्लियर प्रोग्राम” और डॉक्टर पी आर पीराशोति “द फाउंडर डायरेक्टर आफ इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी’ केरला के गवर्नर और अन्य गणमान्य वैज्ञानिकों की मौजूदगी में शाम को 6.25 पर वहां से सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया। दुनिया के वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी भारत द्वारा रॉकेट का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण करने पर अचंभित भी हुए और सावधान भी  

21 नवंबर 1963 की इस सफलता ने नासा के विज्ञान को को भारत के वैज्ञानिक विक्रम साराभाई से बातचीत करने के लिए मजबूर किया और 1966 में नासा के वैज्ञानिकों के साथ बातचीत हुई और जुलाई 1975 में नासा और इसरो ने मिलकर  द सेटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलीविजन एक्सपेरिमेंट को प्रक्षेपित किया। जुलाई 1976 में विक्रम साराभाई का देहांत हो गया लेकिन उनके द्वारा तैयार की गई युवा वैज्ञानिकों की टीम ने उनके अंतरिक्ष शोध को जारी रखा।        

यद्यपि भारत ने आर्यभट्ट सैटेलाइट को यूएसएसआर की मदद से 1975 में अंतरिक्ष में स्थापित किया लेकिन भारत को अपना सैटेलाइट प्रक्षेपण व्हीकल अभी बनाना था । भारत ने 1979 में एसएलबी-3 का अंतरिक्ष में प्रक्षेपण किया लेकिन असफलता हाथ लगी। वैज्ञानिकों ने हार नहीं मानी और अगले ही वर्ष 1980 में एसएलबी 3 का सफल प्रक्षेपण करने में सफलता हासिल की और रोहिणी सैटेलाइट को अंतरिक्ष में स्थापित किया।      इन दोनों प्रक्षेपणों का मुखिया एपीजे अब्दुल कलाम थे।  एसएलवी-3 के सफल प्रक्षेपण के बाद भारत के वैज्ञानिकों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज भारत का दुनिया में ऑपरेशनल रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट में अग्रणी नाम है। यह ही नहीं भारत के वैज्ञानिकों ने 104 सेटेलाइट एक रॉकेट में भेजने का कारनामा भी अपने नाम दर्ज करवाया है ।भारत ने नासा की 230 से अधिक सेटेलाइट्स अंतरिक्ष में स्थापित किए हैं ।इसके अलावा भारत ने यूरोप के 15 देश जिनमें यूके, जर्मनी व इटली भी शामिल हैं जिनके सेटेलाइट्स स्पेस में स्थापित की है ।         भारत दुनिया का पहला देश है जिसने मंगल ग्रह पर अपने मंगलयान को पहली कोशिश में ही पहुंचा दिया है और आज भारत दुनिया का पहले देश हो गया है जिसने चांद के दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम को उतारने में सफलता हासिल की है भारत के वैज्ञानिकों को इस उपलब्धि के लिए बहुत-बहुत बधाई।   . 21 नवंबर 1963 को भारत ने ब्रह्मांड की खोज के लिए जो शैशव लेकिन ठोस कम युवा वैज्ञानिकों होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई व ए पी जे अब्दुल कलाम और दूरंदेशी प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में मेरी मैग्डालेने चर्च से उठाया था वह  विनयशील, समर्पित वैज्ञानिक सोमनाथ , वी एस मोहन कुमार व संकल्पित नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चांद की धरती के दक्षिणी छोर पर शिव शक्ति स्थान पर अंगद के पांव की तरह धर दिया है। भारत के वैज्ञानिकों की इस अकल्पनीय उपलब्धि के लिए चहुं ओर प्रशंसा हो रही है कि उन्होंने कफायती लागत में चांद के कठिनतम छोर पर विक्रम लैंडर को उतार दिया है। लेकिन विडंबना देखिए कि एक और तो भारतीय वैज्ञानिकों की उपलब्धि की प्रशंसा हो रही है और दूसरी ओर भारत के राजनीतिक दल वैज्ञानिकों के परिश्रम और प्रशंसा को अपनी झोली में डालकर घूम रहे हैं। कुछ एक्स पर लिख रहे हैं तो कुछ सेहरा बांध कर जनता के बीच में है । जनता स्तब्ध है, कह रही कि पैसा हमारा ,मेहनत वैज्ञानिकों की और वाहवाही नेता ले रहे हैं।                 यह सच है कि 1962 में जब देश का बजट मात्र 962.92 करोड़ का था जिसमें पीएल 480 के तहत अनाज का आयात करने के लिए भी बजट में पैसा रखा जाता था और तत्कालीन बजट की नींव  का आधार लोगों के प्रोविडेंट फंड व लोगों की निजी बचतों पर होता था। उसे समय पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत के स्पेस रिसर्च को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कुछ पैसा निकाला और जिसके सुखद परिणाम 23 अगस्त 2023 को हम भारतवासियों को मिले। नेहरू के उत्तरोत्तर प्रधानमंत्री ने भी इस पुण्य कार्य में अपना योगदान दिया, विशेष तौर पर इंदिरा गांधी और 2000 से लेकर 2023 तक के प्रधानमंत्रियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 21वीं शताब्दी के शुरुआती 2 दशकों में भारत के वैज्ञानिकों  ने अंतरिक्ष में ऊंची उड़ान भरी है । जिसका सारा श्रेय उन्हीं को ही मिलना चाहिए और,राजनीतिक दलों को छोड़ ,भारतवासी दे भी रहे हैं।

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