1967 से 71 के कालखंड में भारत की राजनीति में एक ऐसा दौर आया की चुने हुए विधायक व सांसद अपने हितों को साधने के लिए लगातार दल बदलते रहते थे। देश और राज्यों की सरकारें लगातार बनती व गिरती रहती। हरियाणा की राजनीति ने तो दल बदल की सारी सीमाएं लांघ दी। एक विधायक जिनका नाम आया राम था, ने एक दिन में तीन बार दल बदल किया और दो सरकारें एक दिन में गिरा व बना दी। विधायक आया राम की इस फितरत ने देश की राजनीति को एक नए शब्द से नवाजा “आया राम गया राम पॉलिटिक्स” सरकारों का आया राम गया राम की राजनीति की चपेट में रहने से राजनीति में भ्रष्टाचार को खूब बढ़ावा मिल रहा था और विकास के सब काम ठप्प पड़ रहे थे। बढ़ते भ्रष्टाचार और डूबते विकास को बचाने के लिए 1985 में भारतीय संविधान की 10वीं सूची में संशोधन कर दल बदल को रोकने के कड़े प्रावधान किए गए। राजनीतिक दलों को भारतीय संविधान में पहली बार मान्यता मिली और पार्टी के चुनाव चिन्ह पर जीते विधायकों को अब दल बदलने के लिए 1/3 सदस्यों की जरूरत पड़ती है, जिसके चलते दल बदल पर रोक लगी गिरती पड़ती सरकार स्थिर हुई।
परंतु इस कानून का तोड़ भी राजनीतिक दलों ने निकाल लिया अब दौर आया सामूहिक इस्तीफों का ।विपक्ष में बैठना दल सत्ता पक्ष के 10-15 विधायक या इससे अधिक विधायक इकट्ठे होकर इस्तीफा देते हैं और दूसरे दल के चिन्ह पर चुनाव लड़ते हैं और नई सरकारी सरकार में शामिल हो जाते हैं । दल बदल विरोधी कानून “सामूहिक इस्तीफों” की नई राजनीति के सामने लाचार खड़ा नजर आ रहा है। 1985 के दल बदल विरोधी कानून की रूह मृतप्राय: हो गई है।पहले कर्नाटक फिर मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार गिराने के लिए मार्च -2020 में विधायकों द्वारा सामूहिक इस्तीफे के तिकड़म ने भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची द्वारा दल बदल पर लगाई बाड़-बंदियों को तोड़कर सरकार गिराने और नई सरकार ने बनाने का जो संकरा रास्ता बना था वह अब भाजपा का पसंदीदा राष्ट्रीय उच्च मार्ग बन गया है। भाजपा ने इस मार्ग को अपनाते हुए मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सरकार गिराईं और अब प्रजातांत्रिक रूप से चुनी हिमाचल प्रदेश की कांग्रेस सरकार को गिराने का खेल भी इसी लाइन पर रचा गया है।
निर्दलीय विधायकों के सामूहिक इस्तीफा करवाए गए। पहले कांग्रेस के 6 विधायकों ने पार्टी व्हिप का उल्लंघन किया और अपने निष्कासन का रास्ता भाजपा का हाथ पड़कर बनाया और कथित तौर पर भाजपा के संरक्षण और सुविधा पर लंबे प्रवास के बाद अपनी कर्मभूमि में आने का मन बना रहे हैं। आजकल नेता चंडीगढ़ में अपनी रणनीति को अंतिम रूप दे रहे हैं। परंतु निर्दलीय विधायकों ने जो सामूहिक इस्तीफे विधानसभा अध्यक्ष को सौंप हैं उसने एक बार फिर मार्च 2020 की चर्चा को बुद्धिजीवियों की जुबान पर ला दिया है । क्या निर्दलीय विधायकों के सामूहिक इस्तीफे से प्रजातंत्र व प्रजा जिसने उन्हें दोनों मुख्य राजनीतिक दलों को दरकिनार कर चुना है के लिए नैतिक रूप जरूरी है या फिर उनकी यह कोई मजबूरी है?
पूर्व लोकसभा सचिव पी डी टी अच्छी ने 2020 में मध्यप्रदेश में कहां था कि विधानसभा अध्यक्ष के पास यह अधिकार है कि वह सामूहिक इस्तीफे पर गहनता से विचार करें और यह जानने की कोशिश करें की क्या वह दबाव, प्रलोभन या अन्य किसी कारण से सामूहिक इस्तीफा तो नहीं दे रहे हैं ? इस बारे में जानकारी लेकर अपना फैसला विधानसभा अध्यक्ष इस्तीफे को स्वीकारने पक्ष में भी सकते हैं और परिस्थितियों को समझ कर असहमत भी हो सकते हैं ।
इसी कड़ी में विधानसभा सचिवालय ने इन तीनों निर्दलीय विधायकों को नोटिस जारी किया है। इस नोटिस में यह कहा गया है कि कांग्रेस सरकार के कुछ मंत्रियों व विधायकों ने उनके इस्तीफा को स्वैच्छिक मानने पर प्रश्न उठाए हैं।
कांग्रेस मंत्रियों व विधायकों ने ये रिप्रेजेंटेशन 23 मार्च को दिया गया हैं जबकि आजाद विधायकों ने 22 मार्च को इस्तीफा सौंपा था । इसके बाद वह हैलीकॉप्टर में अपने खुफिया गंतव्य के लिए उड़ गए थे।
ऐसे में स्पीकर ने संविधान के अनुच्छेद190 /3(बी) व विधानसभा की नियमावली के नियम 287 के तहत नोटिस जारी कर कहा कि वह दस अप्रैल को स्पीकर के सामने पेश होकर अपना पक्ष रखे ताकि ये तय किया जा सके कि उनके इस्तीफे को मंजूर करना है या नामंजूर। इसके अलावा तीनों आजाद विधायकों से कहा गया है कि वह लिखित में भी अपना पक्ष रख सकते हैं। लेकिन यह पक्ष उन्हें नौ अप्रैल तक स्पीकर के सामने रखना होगा।
नालागढ़ से आजाद विधायक के एल ठाकुर ने कहा कि अभी उन्हें कोई नोटिस नहीं भेजा हैं। अगर (ई)मेल पर होगा तो वह देखेंगे। ठाकुर ने दावा किया कि उन्होंने इस्तीफा अपनी इच्छा से दिया हैं और अगर इसे मंजूर नहीं किया जाता तो ये गलत होगा। इसके अलावा उन्होंने राज्यसभा चुनावों में भाजपा प्रत्याशी हर्ष महाजन को वोट अपनी अंतरात्मा की आवाज पर दिया हैं। कांग्रेस ने इतने बड़े वकील को खड़ा कर दिया जिससे मिलना भी मुश्किल था। वह आजाद विधायक थे। ये तो उनके इस्तीफे को लटकाने का प्रयास हैं।